असलियत
समय कालीरुपा वीभत्स बिकराल,
चतुर्दिक मंडरा रहा है काल व्याल।
कुहासों के तामसिक कोहराम में ,
भूमा मन प्रतिक्षण बीनता जाल ।
जीवन बूझते हुए अलाव की तरह ,
कब के बंद कर दिया है गर्मी देना।
सिहरती काँपती लड़खड़ाती हड्डियाँ,
सौभाग्य कहाँ है उसे मजे की सोना?
पावरोटीनुमा बना सब रिश्ते-नाते ,
सिने नायिकाओं की कोमलओठ से,
चिपके पावडर लिपस्टिक की तरह,
जो दिखा जाती है अपनी असलियत,
साबुन पानी के मात्र दो चार छींटे से ।
समानुभूति से दूर बस हो-हंगामा,
बुद्धिजीवी होने की असली पहचान ।
अखबारों में छपती रहे तस्वीर ,
बढ़ा जाती,हमारी आन बान शान।
पर इस बक्रसोच से होगी कभी,
समस्याओं का सही निदान ??
मंच को सादर अभिवादन
मौलिक रचना समीक्षार्थ।
लेखक:-विश्वनाथ विवेका